दिव्य विचार: पहले मन की शांति का विधान करो- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

दिव्य विचार: पहले मन की शांति का विधान करो- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि भगवन ! मैं डगमगाऊँ नहीं, मेरे अन्दर स्थिरता बनी रहे। जो परिस्थितियाँ सामने आई हैं, मैं उनका सामना कर सकूं। यह प्रेरणा पाने के लिए भगवान् के चरणों में जाओ। महाराज ! घर में कोई गड़बड़ हो जाए तो शान्तिविधान करने में कोई दोष है? शान्तिविधान करने में दोष नहीं है। शान्तिविधान करो, पर मन की शान्ति का विधान पहले करो कि कर्म का उदय है, अब झेलना तो पड़ेगा। जब कर्म कटेगा तभी स्थितियाँ दूर होंगी। कर्म काटने का माध्यम भगवान् की पूजा है। अगर मेरी पूजा का प्रभाव अधिक होगा, मेरी कषायों का अनुभाग मैं मन्द कर लूँगा, कर्म कट जाएगा, मेरी भावविशुद्धि अधिक होगी, कर्म की सत्ता कमजोर होगी, कर्म कट जाएगा, स्थितियाँ अनुकूल बन जाएँगी और अगर कर्म भारी होगा तो रोज-रोज पूजा करूँगा तो भी कुछ नहीं होगा। जिसकी श्रद्धा पक्की होती है, वह पूजा करता है, पूजा का फल मिले या न मिले, न मिलने पर उसका उत्साह दोगुना होता है और जो अन्धश्रद्धालु होता है वह कहता है कि हमने तो रोज शान्तिविधान कर लिया, कुछ नहीं हुआ। अब चलते हैं कहीं और, भगवान् के यहाँ कुछ नहीं होता। जैसे एक डॉक्टर से इलाज कराते हैं, पन्द्रह दिन दवाई ली, आराम नहीं मिला तो डॉक्टर बदल लेते हैं। ऐसे ही रोज तुम्हारे भगवान् बदल जाते हैं। बदलते हैं कि नहीं बदलते हैं? सत्तर मड़ियाँ पूज लेते हैं लोग, यह क्या है? अन्धश्रद्धा । श्रद्धा के साथ वही क्रिया की जाती है और अन्धश्रद्धालु भी वही क्रिया करते हैं, लेकिन श्रद्धालु समर्पित होकर क्रिया करते हैं और अन्धश्रद्धालु 'गिव एण्ड टेक' की बात करता है। 'गिव एण्ड टेक' तो सौदेबाजी में होता है, पूजा-भक्ति में नहीं। यहाँ तो केवल 'गिव' है, 'टेक' की बात ही नहीं है। जब हमने खुद को सौंप दिया तो लेने की बात ही क्या है? अन्धश्रद्धा से बचें। जो तेरे दर पर हो नहीं पाया, कहीं पर हो नहीं सकता अन्धश्रद्धा का दूसरा रूप- जिस किसी को भी अपना इष्ट/आदर्श मानकर पूजा शुरु कर देना।