दिव्य विचार: अपनी योग्यताओं को उभारें- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

दिव्य विचार: अपनी योग्यताओं को उभारें- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि नदी के किनारे, एक पत्थर लगा था। सैलानी उस पर बैठकर नदी की धार के साथ अठखेलियाँ खेलते तो कभी धोबी उसी पत्थर पर कपड़ा फींचा करता था। एक रोज एक शिल्पी की नजर उस पत्थर पर पड़ी, उसने पहली ही नजर में उस पत्थर को पहचाना, उसने उस पत्थर को वहाँ अपनी कार्यशाला में लाया और उसे तराशना शुरू किया। तराशते तराशते उस पत्थर मिलना शुरू हुआ और थोड़े ही दिनों में कल तक पत्थर की तरह पड़े रहने वाले साधारण से पत्थर से भगवान का रूप धारण कर लिया। हर पत्थर में भगवान है और पत्थर के भीतर छुपे भगवान को प्रकटाना ही भारत की संस्कृति है। पत्थर, पत्थर है। हर पत्थर से भगवान प्रकट नहीं होता, हो सकता है पर किस पत्थर से भगवान प्रकट होते हैं? उसी पत्थर से जिसे लोग पहचानते हैं और पहचानने के बाद जिसे योग्य शिल्पी का सान्निध्य मिल जाता है। सन्त कहते हैं- हमारा जीवन भी एक पत्थर की भाँति हैं। इस पत्थर के भीतर भगवान बनने की योग्यता है। आवश्यकता उसे पहचानने की और तराशकर उसे उभारने की है। आज बात 'य' की है, चार बातें आप सब से करूँगा। योग्यता, अयोग्यता, योग्य, और अयोग्य। बस इन्हीं चार बातों पर हमें विचार करना है। सबसे पहली बात है- अपने भीतर अन्तर्निहित योग्यताओं को पहचानने की। हर मनुष्य के भीतर कोई न कोई विशेषता होती है। उसके अन्दर योग्यता, योग्यता एक नहीं असीम योग्यताएँ होती हैं पर मुश्किल केवल इतनी है कि वह उसे पहचानता नहीं। पहचानता नहीं यही बात नहीं है, वह उसे पहचानना चाहता भी नहीं। सन्त कहते हैं- तुम क्या हो, इसे पहचानो। चाहे हम आध्यात्मिक जीवन की बात करें अथवा व्यावहारिक जीवन की। लोक और लोकोत्तर दोनों क्षेत्रों में प्रगति वे ही कर सकते हैं, जो अपनी योग्यताओं को पहचानकर उनको उभारते हैं।