दिव्य विचार: साधु को अपनी साधुता की कसौटी पर खरा उतरना चाहिए- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि मैं साधु बना हूँ। मैं रोज सोचता हूँ, मैं श्रमण हूँ। समाज मुझे एक सम्मान देती है, उच्च आसन पर बिठाती हैं तो मैं श्रमण हूं इसका आभाष मेरे मन में होता है। हर पल मैं यही सोचता हूं कि मैं श्रमण हूं तो श्रामण्य की कसौटी पर मुझे खरा उतरना है। ऐसा कोई काम नहीं करना जिससे पूरी श्रमण परम्परा पर लोग उंगली उठाएं। यह जवाबदारी मेरी है, जिससे मैं सम्हलता हूं। मेरे भीतर की यह जागरूकता ही मुझे सम्हालती है। नहीं तो नाटक करने की बुद्धि तो हर इंसान के पास है। मैं भी बहुत नाटक कर सकता हूँ। आपके सामने आऊँ तो परम ज्ञानी बन जाऊँ और भीतर रहूँ तो मैं क्या हूँ? मैं ही जानू । सन्त कहते हैं- ऐसा करने वाला दुनिया को धोखा नहीं देता, खुद के साथ धोखा करता है। साधु को अपनी साधुता की कसौटी पर खरा उतरना चाहिए। उसे अपनी चर्या में कोई दाग नहीं लगाना चाहिए और जीवन में कोई ढोंग नहीं होना चाहिए। जो भी काम करें, ढंग से करें। ढंग क्या है? आगम ही ढंग है, आगम की मर्यादा ही ढंग है। जो आगम की आज्ञा है, जो शास्त्र की आज्ञा है, जो गुरु ने हमारे लिए मर्यादा खींचकर दी है, उसके भीतर रहने में तुम्हारा जीवन सफल है; उसका उल्लंघन कर दोगे तो जीवन बर्बाद। वहाँ सावधान हो जाओ। यह साधु जीवन की बात है। जो इसकी मर्यादा का पालन करते हैं, वे अपने जीवन को धन्य कर लेते हैं। हमें करना भी चाहिए, कोई दिखावे की जरूरत नहीं। तुम जैसी स्थिति में हो वैसे ही रहो, कोई बुराई नहीं। अगर तुम साधु होकर साधुता का पालन नहीं करते तो इससे पूरा साधु मार्ग कलंकित होता है, तुम्हारे पास क्षमता नहीं है तो गृहस्थ रहो न। नीचे रहकर ऊपर का काम करना अच्छा है, ऊपर की भूमिका में रहकर नीच कर्म करना अच्छी बात नहीं है। यह बात हर व्यक्ति को हर पल सोच कर चलना चाहिए। दूसरी बात आप धर्मात्मा हैं।