दिव्य विचार: जीवन को परिमार्जित करने की कोशिश करें- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि एक मूढ़ व्यक्ति भी धर्म करता है और एक ज्ञानी व्यक्ति भी धर्म करता है। मूढ़ व्यक्ति यदि धर्म करेगा तो वह किसी भय / लोभ से ग्रसित मानसिकता से करेगा और ज्ञानी व्यक्ति यदि धर्म करेगा तो अपने जीवन को परिवर्तित और परिमार्जित करने के लिए करेगा। आप धर्म तो करते हो, पर किसलिए करते हो? ईमानदारी से बोलना ! क्या बात है? जीवन को परिवर्तित करने के लिए अगर धर्म करते हो, जीवन को पवित्र बनाने के लिए, परिष्कृत करने के लिए धर्म करते हो तो किसकी उपासना करोगे? किससे तुम्हारा जीवन परिवर्तित होगा? किससे तुम्हारा जीवन परिष्कृत या पवित्र होगा? जब तुम दर्पण देखते हो, तो क्या देखते हो? चेहरे के दाग-धब्बे को। गन्दे दर्पण में देखते हो या साफ-सुथरे में? जिस दर्पण में पेण्ट पुता हो उसमें तुम्हारा प्रतिबिम्ब उभरेगा क्या? अरे महाराज ! कैसी बात करते हो? साफ-सुथरा दर्पण चाहिए, तब हम उसमें अपनी स्वच्छ छवि निहार पाते हैं। इसलिए हम दर्पण को साफ रखते हैं और साफ दर्पण में ही अपना चेहरा देखना पसन्द करते हैं। जैसे अपने रूप को सँवारने के लिए साफ दर्पण की आवश्यकता है वैसे ही स्वरूप को निखारने के लिए भी स्वच्छ आदर्श की आवश्यकता है, स्वच्छ दर्पण की आवश्यकता है। वह दर्पण वीतराग देव, शास्त्र और गुरु का दर्पण है, उसे अपनाओ। मन में किसी भी प्रकार की मूढ़ता को हावी मत होने दो। जीवन में दो प्रकार की मूढ़ताएँ मनुष्य की होती हैं- एक उपासनागत मूढ़ता और दूसरी है आध्यात्मिक मूढ़ता। दोनों पर हमें बहुत गम्भीरता से ध्यान रखने की जरूरत है। उपासनागत मूढ़ता पूरे विश्व में है, देश की क्या बात करूँ, भारत में कुछ ज्यादा हो सकती है, लेकिन बहुतायत में है। तुम देखो, अगर उपासना करते हो तो किसकी करते हो? क्यों करते हो? मेरी उपासना में कोई मूढ़ता यानी भूल-चूक अथवा अज्ञानता है या नहीं? इसकी जाँच करो। सबसे पहली बात उपासना किसकी करते हो?