दिव्य विचार: जहां श्रद्धा वहां अभय- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि देखो ! चार शब्द हैं- विश्वास, बुद्धि, तर्क और श्रद्धा । चारों शब्द आपके जाने-पहचाने हैं। विश्वास कहता है मैं रात के अन्धेरे में भी बेधड़क चला करता हूँ, तो बुद्धि कहती है कि मैं दिन के उजाले में भी भटक जाती हूँ। श्रद्धा कहती है मैं पाषाण को भगवान् बना देती हूँ और तर्क कहता है मैं भगवान् को भी पाषाण सिद्ध कर देता हूँ । तर्क से अपने आपको डायवर्ट कीजिए। श्रद्धा की पृष्ठभूमि तैयार होनी चाहिए, जिसके आधार पर हम अपनी धार्मिक यात्रा को गति दे सकें। जैसे श्रद्धा और शंका वैसे ही भय और अभय है। जहाँ शंका वहाँ भय है, जहाँ श्रद्धा वहाँ अभय है। आपको अपने घर में डर लगता है? महाराज ! डर लगता है। कब? जब घर में अकेले रहते हैं तब और जब घर में माल पड़ा रहता है तब। क्यों? अकेले हैं कोई आ न जाए, माल पड़ा है, कोई पहुँच न जाए। आजकल डाका डालने वाले कम आते हैं, रेड डालने वाले जल्दी आ जाते हैं। शंका हुई तो डर हुआ और निश्चिन्तता है तो कुछ नहीं है, कोई डर नहीं है। सम्यग्दृष्टि के हृदय में वस्तु के स्वरूप के प्रति सच्ची श्रद्धा होती है, इसलिए उसके हृदय में डर नहीं होता। सम्यग्दृष्टि सात प्रकार के भयों से मुक्त होता है। भय होगा भयातुर नहीं होगा। आजकल भय एक बहुत बड़ी समस्या है अनेक प्रकार के वास्तविक और काल्पनिक भयों के कारण मनुष्य अन्दर से टूट जाता है, डिप्रेशन का शिकार हो जाता है। कई तो ऐसी फर्जी बातें होती हैं जिनको दिमाग में हावी कर लेते हैं तो गड़बड़ हो जाती है। देखिए ! सात भय होते हैं, जिनका सामना एक साधारण मनुष्य करता है और वही स्थितियाँ एक सम्यग्दृष्टि के समक्ष आती हैं। दोनों की परिणति में क्या अन्तर होता है? सबसे पहला भय इहलोक-भय है। इहलोक भय मतलब इस लोक में मुझे कोई नुकसान न हो जाए, मेरा कोई अनिष्ट न हो जाए, मेरी प्रतिष्ठा को धक्का न लग जाए, मेरे यहाँ किसी का वियोग न हो जाए। मन में ये बातें आती हैं।