दिव्य विचार: दूसरों को नहीं स्वयं को देखें- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

दिव्य विचार: दूसरों को नहीं स्वयं को देखें- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि ऐसे एक नहीं, अनेक उदाहरण मिल जाएँगे। धर्मी होने का लेबल तो तुमने लगा लिया, तुम्हारे भीतर धर्म की छाप पड़ी या नहीं, ये तुम्हें देखना है। दूसरों में यह मत देखना कि वह कितना धर्मी है? आजकल उल्टा होता है, लोग दूसरों के आगे थर्मामीटर लगाते हैं, देखते हैं वह धर्मी है कि नहीं। अरे भैया ! अपने गिरेबान में झाँककर देखो। गुरुदेव कहते हैं-'दूसरों के घर झाडू लगाने से तुम्हारे घर का कचरा साफ नहीं होगा, दूसरों को मत देखना, खुद को देखना'। खुद के भीतर देखने की कोशिश करना तो तुम जीवन का असली आनन्द ले पाओगे, मजा ले पाओगे अन्यथा सब कुछ व्यर्थ और विनष्ट हो जाएगा। तुम धर्मी हो, धर्म करते हो, समाज में सम्मान की दृष्टि से देखे जाते हो तो सोचो तुम जो सम्मान पाते हो उस लायक हो या नहीं। कहीं ऐसा तो नहीं जैसा लोक में तथाकथित सफेदपोशों के भीतर का स्याह आचरण होता है, वह तुम्हारे साथ जुड़ा हुआ हो। आज देश में ऐसा ज्यादा होता है। बहुत से सफेदपोश हैं, जो स्याह आचरण से जुड़े हुए हैं। सामने आए तो क्या आए, इतने अच्छे आदमी लेकिन भीतर से क्या है। तुम्हें सुधरना है। भीतर से अच्छा बनो जीवन धन्य होगा, जीवन सुखी होगा और तब अपने जीवन में कोई सार्थक उपलब्धि कर पाओगे। तुम्हारे जीवन में कोई ढोंग नहीं रहना चाहिए, कोई कुटिलता नहीं होनी चाहिए। ढंग का जीवन होना चाहिए। मैं आपसे कहता हूँ-धार्मिक तुम बन गए हो बहुत अच्छी बात है; धर्मात्मा बनने का प्रयास करो। धार्मिक वह है जो धर्म की क्रिया करें और धर्मात्मा वह है जिसकी आत्मा में धर्म बसे। धर्मात्मा वह है जो धर्म को अपनी आत्मा में बसा ले। धार्मिक व्यक्ति का धर्म उसके पूजा-पाठ और धार्मिक क्रियाओं तक सीमित रहता है और धर्मात्मा व्यक्ति का धर्म उसके प्रत्येक विचार और व्यवहार में प्रतिबिम्बित होता है। अपने भीतर एक धर्मात्मा को जन्म दो। अगर तुम सच्चे धर्मात्मा हो तो पाप से विमुख हो जाओ।