शहर तो छोडि़ए, अपने हक के लिये भी संघर्ष नहीं करतीं संस्थाएं

सतना | सिर्फ डेढ़ दशक गुजरे होंगे जब शीर्ष व्यापारिक संस्था विंध्य चेम्बर सहयोगी संस्थाओं के भरोसे व्यापारिक समस्या ही नहीं शहर के हक के लिये भी सड़क में उतर जाती थी। कलेक्टर या एसपी ही नहीं पक्ष और विपक्ष के नेता भी इन संस्थाओं से घबराया करते थे। सही मायने में ये संस्थाएं विपक्ष की भूमिका में होती थीं। कई बार तो मुहल्लों की समस्या के लिये भी लोग चेम्बर पदाधिकारियों कोे फोन करते थे। सरकार किस दल की है यह नहीं देखा जाता था पर बदलते समय के साथ इन संस्थाओं की संघर्ष की इच्छाशक्ति भी समाप्त हो चली है। कई संस्थाएं तो जेबी हो गई हैं। चुनाव तो दूर अधिवेशन तक नहीं होते।

ऐसे होते थे जलवे
पचास से अधिक स्थापना दिवस मना चुकी विन्ध्य चेम्बर में अभी लोकतंत्र तो बचा हुआ है। साल में अधिवेशन भी होते हैं। दो साल में कार्यकारिणी का चुनाव भी पर अब वह भी सड़कों पर नहीं उतरती। उसका काम फिलवक्त संबंधित विभागों को पत्र लिखने में बीत रहा है। चेम्बर में कई सालों तक महामंत्री और अध्यक्ष रहे विवेक अग्रवाल का कहना है दो दशक पहले के दिनों को देखें तो  चेम्बर व्यापार हित नहीं शहर की बुनियादी सुविधाओं के लिये भी सड़क पर उतर जाता था। कई दिनों आंदोलन चलते थे। चाहे वह बिजली कटौती का विरोध हो अथवा पेट्रोलियम डिपो को सतना से जबलपुर भेजना।

चेम्बर ने भूमिका का सही तरीके से निर्वाह किया था। तब महापौर चाहे राजाराम त्रिपाठी रहे हों या चेम्बर अध्यक्ष माधव बाधवानी। सरकार भी प्रदेश में कांग्रेस की थी। पर कभी भी हावी नहीं हुई। चेम्बर दो तरह के कार्यक्रम करता था। एक आंदोलन और दूसरे कार्यशालाएं आयोजित कर सदस्यों को विशेष जानकारी दिलाने की। पूर्व अध्यक्ष योगेश ताम्रकार भी श्री अग्रवाल की बातों से इत्तफाक रखते हुए याद करते हैं कि तब चेम्बर व्यापार व शहर हित की बात रखने के लिये मुख्यमंत्री के काफिले तक को सड़क पर रोक लेता था। पर अब वह बात नहीं रही। हालांकि अभी भी संस्थाएं अपना काम कर रही है पर उनके विरोध का स्वरूप बदल गया है।

तो जेबी हो गईं संस्थाएं
वर्तमान परिवेश में चेम्बर भले ही सड़क पर न उतरे पर व्यापार व शहर की समस्याओं पर जब-तब पत्रों के माध्यम से अपनी उपस्थिति दर्ज कराता रहता है।  मौजूदा समय में चेम्बर की 33 सहयोगी संस्थाएं हैं। उनकी स्थिति तो और गई बीती हो गई है। यदि डेढ़ दशकों में उनके संघर्ष की बात करें तो दो संस्थाओं को छोड़कर किसी ने सड़क पर उतर कर अपने लिये भी लड़ाई नहीं लड़ी। इनमें सराफा कारोबारियों की दो संस्थाओं द्वारा गोल्ड में बढ़े टैक्स के खिलाफ 40 दिनों की काम बंद हड़ताल तथा सीएमए का कई दिनों तक जीएसटी में कपडे को शामिल करने के खिलाफ चले आंदोलन को याद कर सकते हैं।

इन 33 संस्थाओं में सीएमए, गल्ला तिलहन व्यापारी संघ, कृषि उपज व्यापारी संघ, एसएमटी, जिला उद्योग संघ, जनरल मर्चेन्ट व रेडीमेड व्यापारी संघ के तो चुनाव भी होते हैं और अधिवेशन भी होते हैं पर अधिकांश में दो सदस्य ही अध्यक्ष व मंत्री पद पर हर सत्र में रिपीट होते हैं या पद चेंज कर लेते हैं। अन्य के तो याद भी नहीं है कि कब अधिवेशन या चुनाव हुए हैं। कुछ ने अधिवेशन के स्थान पर पिकनिक मनाना अधिक उचित समझा है। कहां जा रहा है कि अधिकांश संस्थाओं में सत्तापक्ष की विचारधारा के लोग बैठे हैं लिहाजा वे समस्या होने पर भी आवाज उठाने में पीछे हट जाते हैं।

विंध्य चेम्बर व्यापारिक व शहर की समस्या का विरोध अपने मजबूत तर्कों को सामने रखकर करता था इसलिये अधिकारी भी उसकी बातों को महत्व देते थे। उसकी पहचान विपक्ष के रूप में होती थी। अब सब समाप्त हो गया है।
-विवेक अग्रवाल, पूर्व चेम्बर अध्यक्ष

मैं नहीं मानता कि व्यापारिक संस्थाओं में संघर्ष की भूमिका समाप्त हो गई है। बदलते समय के साथ विरोध केतरीकों में बदलाव आया है। चेम्बर और उसकी सहयोगी संस्थाएं आज भी अमना काम कर रही हैं।
-योगेश ताम्रकार, पूर्व चेम्बर अध्यक्ष

चेम्बर और उसकी सहयोगी संस्थाएं निष्क्रिय नहीं हैं। सभी अपने अपने तरीके से आवश्यकता के अनुसार काम कर रही हैं। जहां तक सड़क पर उतरने की बात है तो इसके लिये लोगों का पहले जैसा सहयोग नहीं मिलता।
-द्वारिका गुप्ता, अध्यक्ष विन्ध्य चेम्बर