दिव्य विचार: पवित्रता का आधार वीतरागता है- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि कौन है पूज्य ? जिसने अपने जीवन में पूर्णतः पवित्रता प्रकट कर ली। पूज्यता और पवित्रता एक-दूसरे के पर्यायवाची शब्द हैं। पवित्रता है तो पूज्यता है और पवित्रता का आधार वीतरागता है। जिसमें राग, द्वेष, काम, क्रोध, मोह, लोभ जो तुम्हारे अन्दर विद्यमान हैं, वही सामने वाले में विद्यमान हैं, सामने वाले में जो दुर्गुण हैं, वही दुर्गुण तुममें भी हैं तो अन्तर क्या हुआ? केवल स्टैण्डर्ड का। तुममें और उनमें कोई अन्तर नहीं तो वह पूज्य कैसे? जो अमूढ़दृष्टि का धनी होता है उसे कितना भी भय हो, कैसा भी प्रलोभन हो, स्नेह हो, दबाव हो, वह इधर-उधर नहीं झुकता। क्यों नहीं झुकता ? प्रभावित ही नहीं होता। उसके लिए टोने-टोटके, गण्डे-ताबीज आदि का कोई मतलब नहीं। उसको बड़े-बड़े चमत्कार किञ्चित् भी प्रभावित नहीं करते। द्रव्यसंग्रह की टीका में एक बहुत अच्छी बात लिखी है। तरह-तरह के देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना को लोकमूढ़ता निरूपित करते हुए उन्होंने लिखा कि रावण ने बहुरूपिणी विद्या सिद्ध की और कंस ने कात्यायनी विद्या सिद्ध की, सब देवी-देवताओं में लग गए। यह देवी-देवता कुछ नहीं करते हैं। रामचन्द्र जी ने कोई विद्या सिद्ध नहीं की, श्रीकृष्ण व बलराम ने कोई विद्या सिद्ध नहीं की, लेकिन परिणाम क्या निकला? तमाम प्रकार के खट्कर्म अपनाने के बाद भी रावण की हार हुई और बिना कुछ किए भी राम की जय-जयकार हुई। सब कुछ होने के बाद भी कंस का सत्यानाश हुआ और बिना कुछ किए श्रीकृष्ण का जीवन चमत्कृत हो गया। यह चीज समझने की है। जीवन में चाहे कैसी भी स्थिति आए, पूज्यापूज्य के विवेक को हमेशा जीवित रखो। चाहे जिससे प्रभावित होना अच्छी बात नहीं है।