दिव्य विचार: धन के साथ उदारता भी हो- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि देखो ! एक सम्यग्दृष्टि जीव की परिणति क्या है? अभी कुछ पता नहीं, घर में पता नहीं क्या गया है और क्या बचा है? उस चोरी के बाद जो बचेगा, वही परिग्रह परिमाण की सीमा है आज से। सोचो ! उसकी जगह आप होते तो क्या करते? धीरे से पण्डित जी के कान में बोलते दो दिन की छुट्टी दे दो। और अगर पण्डित जी थोड़ा तेज होते तो बताते भी नहीं, चुपचाप खिसक जाते। होता कि नहीं होता? बोलो! लेकिन जो तथ्य को समझने वाले जीव होते हैं, उनकी परिणति विलक्षण होती है। मन में संकोच नहीं, कोई सन्ताप नहीं, एकदम टेंशन फी, तीन दिन तक ठाठ से पूजा-पाठ किया। पूजा पूरी होने के बाद घर लौटना ही था। अभी तो गृहस्थी थे, संन्यासी तो थे नहीं। घर लौटे तो देखो ! पुण्य का चमत्कार, चोरों ने पूरा घर खोद डाला था, लेकिन जहाँ असली माल पड़ा था, वहाँ उनकी निगाह तक नहीं पहुँची और सब सुरक्षित रह गया। चोरी इतनी बड़ी, पर माल मामूली गया और सब सुरक्षित रह गया। धन्य है वह चिरौंजाबाई, जो दिलेरी से कहती हैं कि अब जो बचेगा, वही मेरे परिग्रह परिमाण की सीमा है। यह एक सम्यग्दृष्टि का निःकांक्षितपना है। वह अरबपति, खरबपति हो सकता है। निःकांक्षित होने का मतलब यह नहीं कि वह धनपति न बने। सम्यग्दृष्टि ही ज्यादा धनपति होते हैं, क्योंकि उनके पुण्य का इतना तीव्र उदय होता है कि संसार के सारे अनुकूल संयोग उनके चरणों में आते हैं। उसे मानव तिलक कहा है। जिसके बराबर ठाट-बाट किसी के पास नहीं, जिसके बराबर रुपया, रुतबा और रूप किसी और के पास नहीं, पर वह जानता है यह सब मेरा नहीं। बस मैं आपसे कहता हूँ धनाढ्य बनो, पर धनान्ध नहीं। क्या कहा? धनाढ्य और धनान्ध में क्या अन्तर है, जानते हो? धनाढ्य वह है जिसके पास जितना धन हो उससे ज्यादा उदारता हो और धनान्ध वह है जिसके पास जितना धन हो उससे ज्यादा मद हो। बात समझ में आई? सीधी सी बात धन जितना हो उतनी उदारता हो तो तुम सच्चे अर्थो में धनाढ्य हो।