दिव्य विचार: अपनी मर्यादा तय करो- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि आप क्या चाहते हैं? सब लोग इंस्टैण्ट तुरन्त चाहते हैं। यह क्या है? दुराकांक्षा । इस दुराकांक्षा से तो अपने आपको संकल्पपूर्वक दूर करो। आकांक्षाएँ तो किसी अंश में पूर्ण हो भी सकती हैं, पर दुराकांक्षा तो प्रायः दुष्पूर होती हैं और दुर्गति का कारण बनती हैं। मेरा यश हो, यह तुम्हारी आकांक्षा है, पर केवल मेरा ही नाम हो, यह क्या है? दुराकांक्षा। मुझे सत्ता मिले, यह आकांक्षा है, पर केवल मेरी सत्ता चले, यह क्या है? अपने मन से पूछो मन में कभी यह दुराकांक्षा उभरती है या नहीं? जिसके हृदय में ऐसी दुराकांक्षा आती है, वह महादुःखी होता है, दुर्गति का पात्र बनता है, जीते जी दुर्गति होती है। दुर्योधन की दुर्गति क्यों हुई? उसकी दुराकांक्षा के कारण हुई। पाण्डव तो बेचारे सरेण्डर हो गए थे। पाँच गाँव दे दो, हम तैयार हैं।
सूच्यर्यमपि न दास्यामि विना युद्धेन
केशव। तुम पाँच गाँव की बात करते हो नटवरलाल ! कहाँ आ गए मेरे सामने? मैं सुई की नोक के बराबर जमीन भी युद्ध के बिना नहीं दूँगा। यह क्या चीज है? दुराकांक्षा । बन्धुओं ! दुर्योधन तो चला गया, पर उसका नया संस्करण रोज लोगों के हृदय में उत्पन्न होता है। राजा मिडास के हृदय में सोना पाने की आकांक्षा थी कि दुराकांक्षा? कहानी पता है न? जिसे छुओ वह सोना बन जाए। पता लगा अपनी पत्नी को छुआ और उसकी पत्नी उसके लिए बेड़ी बन गई। आपकी पत्नी सोने की पुतली हो गई। अब क्या करे? बेचारा अपनी पत्नी में ही लिपट कर रह गया। कहानी काल्पनिक है, लेकिन उसका कथ्य कितना सत्य है? यह क्या है? दुराकांक्षा। दुराकांक्षाओं से बचना चाहते हो तो अपनी सीमाओं का ख्याल रखो। पहली बात अपनी मर्यादा का उल्लंघन मुझे किसी स्थिति में नहीं करना है। संयम मनुष्य को दुराकांक्षाओं से दूर करता है। मैंने अपनी मर्यादाएँ तय कर ली हैं, मैंने अपनी लिमिट निश्चित कर ली है, इससे आगे मैं नहीं जाऊँगा। मेरे जीवन की यह लक्ष्मण रेखा है, खींचकर रखोगे तो सुखी रहोगे और उसका उल्लंघन कर दोगे तो सारी जिन्दगी दुःखी रहोगे।