दिव्य विचार: भोगों को बढ़ाने की जगह घटाएं- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

दिव्य विचार: भोगों को बढ़ाने की जगह घटाएं- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि लक्ष्य वह रखो भोगों को बढ़ाने की जगह घटाने की चाह, उनके प्रति उपेक्षा का भाव होना चाहिए। एक तो इष्ट मानकर किसी विषय को भोगें और एक भैया ! क्या करें? करना पड़ रहा है। देखो ! आप लोग मिठाई खाते हो, खाते हो कि नहीं खाते हो? खाते हो, दवाई भी खानी पड़ती होगी। ऐसे लोग तो यहाँ भले ही मिल जाएँगे जो रोज मिठाई नहीं खाते होंगे, पर कुछ लोग ऐसे जरूर मिलेंगे जिनकी सुबह की शुरुआत दवाई से होती है। ऐसे एक-दो लोग सभा में हैं, जिनको दवाई खाए बिना काम नहीं चलता। देखो ! दिन की शुरुआत दवाई से होती है, लेकिन दवाई खाने की मानसिकता और मिठाई खाने की मानसिकता एक होती है क्या? क्या होती है? भगवान् के सामने यह भाव रखने वाले फिर भी मिल जाएँगे कि भगवन ! रोज मेरा मुँह मीठा हो। आप भी किसी के प्रति सुख की शुभाकांक्षा रखोगे तो यह कहोगे कि भैया ! इसका मुँह मीठा हो। मुँह मीठा कराने की कोशिश करते हैं। मिठाई मिले, यह भाव सब रखते हैं, पर हे भगवान् ! मुझे जिन्दगीभर दवाई मिलती रहे, रोज दवाई खाता रहूँ, यह कौन चाहता है? अन्तर क्या हुआ? मिठाई खाते हो और दवाई खानी पड़ती है। यही अन्तर है न? मिठाई खाते हो, उसे खाना नहीं पड़ता है और दवाई खानी पड़ती है, खाते नहीं हो। कब यह बला छूटे। अज्ञानी जीव विषयों को मिठाई की भाँति चाव से खाता है और ज्ञानी जीव विषयों को दवाई की भाँति खाता है। आप क्या खा रहे हो? मिठाई कि दवाई ? बोलो ! उस मिठाई को भी दवाई मानकर खाओ। अब कोई दवाई को ही मिठाई मान ले तो? अज्ञानी जीव और ज्ञानी जीव, दोनों की परिणति में जमीन-आसमान का अन्तर है। अपनी चेतना को ऊध्र्वमुखी बनाओ। एक वनस्पति आती है औंधा काँटा। उसमें बड़े औषधीय गुण हैं। कई तरह के प्रयोग हैं। उसमें काँटे जो होते हैं, वे ऊपर की ओर मुँह किए हुए होते हैं।