दिव्य विचार: भोगों के प्रति उदासीनता होनी चाहिए- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि एक ज्ञानी और अज्ञानी में कितना अंतर है? कीचड़ में सोने को डालो, क्या होता है? सोना कीचड़ को लेशमात्र भी ग्रहण करता है? क्या होता है? कीचड़ में लिप्त दिखता है, पर लिप्त होता है? धो लो, सोना सोना ही रहता है। कीचड़ में लिप्त होकर भी सोना अलिप्त है और लोहे को कीचड़ में डालो तो? क्या लगेगा? जंग। ज्ञानी सोने की भॉति होता है जो विषयों के कीचड़ में पड़ता नहीं और कदाचित पड़ भी जाए तो लिप्त नहीं होता। अज्ञानी लोहे की तरह है जो विषयों के कीचड़ में लिप्त होकर जंग खा जाता है। अभी तक लोहे की भॉति जिए हो, अब सोने की भॉति जीने की कला सीखो, यही सम्यग्दृष्टि की पहचान है। यही उसकी अनाकांक्षा या निःकांक्षितपन है। भोगो के प्रति उदासीनता होनी चाहिए। मैने एक जगह देखा, कफ पड़ा हुआ था। एक मक्खी आई और उसमें जम्प कर गई। उसके पंख उसमें लिपट गए। बेचारी उड़ नहीं सकी, थोड़ी देर में प्राण निकल गए। कुछ देर बाद दूसरी मक्खी वहाँ आई। मैंने देखा वह कफ के एक साइड में बैठी और धीरे-धीरे पूरा कफ चाट गई। उसको कुछ नहीं हुआ। क्या हुआ? मैं देखता रह गया। मेरे सामने की घटित घटना है। मेरे मन में बस एक ही चिन्तन आया कि जो विषयों के कफ में जम्प करता है, उसका जीवन ऐसे ही नष्ट हो जाता है और जो विषयों से तटस्थ रहता है, उसका कुछ भी बिगाड़ नहीं होता। सराग भूमिका में जीने वाले गृहस्थ का निःकांक्षितपना यही है। घर-परिवार चलाएगा, व्यापार करेगा, भूमिका के अनुसार विषयों में भी रमेगा, लेकिन इन सबको हेय मानकर चलेगा। ये उपादेय नहीं हैं, जंजाल हैं। कर्म के उदय से मैं फँसा हूँ, यह मेरा साध्य नहीं है। अपने मन से पूछो तुम्हें तुम्हारा साध्य क्या प्रतिभासित होता है? व्यापार, धन्धा, धन, पैसा, परिवार, परिजन, भोग-विलास, यदि यह है तो समझना अभी तुम्हारा संसार बहुत लम्बा है, तुम सम्यग्दृष्टि की भूमिका में नहीं हो। यदि तुम्हें तुम्हारा साध्य इन सबसे ऊपर आत्मकल्याण की तरफ लगता है तो समझना तुम्हारा संसार सिमट गया है।