दिव्य विचार: चाहतों का अंत नहीं- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि पहला तो पुण्यकर्म का उदय होगा तो चीजें मिलेगी और महापुण्य का उदय होगा तो उसे भोग सकोगे। हमने अनेक लोगों को देखा है जिनके नौकर-चाकर गुलछर्रे उड़ाते हैं और कुत्ते कार में घूमते हैं और उनके श्रीमान् जी पड़े-पड़े बिस्तर पर करवटें बदलते हैं। सब छूट गया है। रूखे फुलके और मूंग की दाल के पानी पर सन्तोष करना पड़ रहा है। क्या हो गया? कर्म अनुकूल नहीं हैं। कितनी भी चाह करो, चाह की पूर्ति नहीं होती। कर्मपरवश है, पराधीन है। है कि नहीं? सान्त है। क्या है? अन्त होने वाला है, जल्दी ही उसका अन्त हो जाता है। कितनी देर तक टिकता है? हम जब छोटे थे, तो एक अलग प्रकार की मिठाई होती थी। यहाँ पर भी होती होगी, उसको बोलते थे हवा मिठाई। यहाँ क्या बोलते हैं? गुड़िया के बाल। आजकल मिलती है कि नहीं मिलती है? हमने कहा हाईटेक युग हो गया है, मिलती हो न मिलती हो। देखने में इतनी बड़ी बनती थी, तुरन्त ताजा बनाकर देता था, फिर उसको फूल बनाकर देता था। देखने में कितनी अच्छी और मुँह में डालते ही सब हवा, यही हवा मिठाई है। अब जब मैं सोचता हूँ तो मुझे लगता है पाँच इन्द्रियों के जितने भी विषय हैं, सब हवा मिठाई हैं। वह भोग करते ही हवा हो। जाते हैं। बोलो हैं कि नहीं? यह सान्त हो जाने वाले हैं, टिकाऊ नहीं, अस्थिर हैं। दुःख से मिश्रित हैं। कुत्ता सूखी हड्डी चबाता है, जिस समय चबाता है उस समय उसे रस की अनुभूति होती है। उसे बहुत अच्छा लगता है, लेकिन उसमें कोई रस है क्या? रस कैसे निकला? उसके मसूड़े छिले, उसका रस निकला। बाद में पता लगता है, उसका मुँह दुखता है। सन्त कहते हैं पाँच इन्द्रियों के जितने भी विषय हैं, इन विषयों की पूर्ति के बाद भी दुःखों की अनुभूति होती है। कौन सा दुःख होता है? आकुलता। आकुलता दुःख है कि सुख? टेंशन...। यह दुःख तो साथ में ही लगा हुआ है। आकर्षक है, पर आकुलता उत्पन्न करने वाला है। संसार के सारे विषय विषमिश्रित मिष्ठान्न की तरह हैं।