दिव्य विचार: विषयों में रमना ही अज्ञान है- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि किसी के शब्द सुनकर अच्छा लगे तो मजा नहीं है, यह शब्द तुम्हारे अपने अनुभव से प्रेरित उद्गार बन जाएँ तो जीवन बदल जाए। महाराज जी ने कह दिया तो मुण्डी हिला दी, नहीं हिलाएँगे तो मुश्किल है, सामने बैठे हैं, हिलानी तो पड़ेगी, लेकिन अन्दर से यह उद्गार निकले तो तुम्हारे जीवन की धारा बदल जाए। अपने जीवन के अनुभव को पलटकर देखो। पाँच इन्द्रियों के विषयों की चाहत पूरी करने की जब-जब तुमने चेष्टा की, तुम्हारे प्रयासों से तुम्हारी विषयाभिलाषा के योग्य साधन भी तुम्हें मिल गए, तुमने उनकी पूर्ति भी कर ली, पर तृति कितनी देर मिली? क्या मिली? अनुभव क्या बोलता है? महाराज । थोड़ी देर की तृप्ति और लम्बे समय की आकुलता पाने के पहले, जब तक न पाओ तब तक उसे पाने की आकुलता, जब उसे पा लो तो उसे भोगने की आतुरता और भोग लेने के बाद अतृप्ति का भाव, यही है न आज तक का अनुभव ? अप्राप्त को प्राप्त करने की आकुलता होती है। कैसे मिल जाए? कैसे मिल जाए और पा लो तो उसे भोगने की आकुलता कि तनिक जल्दी हो जाए और बाद में यह कमी रह गई, वह कमी रह गई, यह अतृप्ति। ये अनुभव है... ? कहते हैं सामान्य प्राणी तो इसी में रमता पर सम्यग्दृष्टि कहता है कि भैया ! इसमें कोई मतलब नहीं है। प्याज की परत उतारने की चेष्टा कौन करता है? अज्ञानी कि ज्ञानी? एक बच्चा जिसने प्याज के स्वरूप को नहीं जाना, वह कहेगा- चलो छीलते जाओ, छीलते जाओ, छील-छीलकर हाथ में क्या आएगा ? बस परत-दर-परत, परत-दर-परत, उसमें निष्कर्ष जीरो है। लेकिन कोई समझदार है, उससे पूछो। भैया ! इसको रहने दे, कोई मतलब नहीं है, क्योंकि इसमें परत के अलावा कुछ है ही नहीं। अज्ञानी इसी कारण से विषयों में रमता है और ज्ञानी विषयों पर विराम लगाता है। विषयों में रमने वाले अलग और विषयों पर विराम लगाने वाले अलग। अपनी धारणा को पलटते हुए भोगाकांक्षाओं को मन्द करना ही निःकांक्षा है।