दिव्य विचार: शुभ या अशुभ कर्म क्या चुनोगे ! - मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि एक इच्छा है भौज-मस्ती करने की, एक इच्छा है भोग-विलास में रमने की, एक इच्छा है किसी हिलस्टेशन पर जाने की, एक इच्छा है कोई पिक्चर देखने की और एक इच्छा है किसी को मारने-पीटने की, एक इच्छा है किसी को गाली देने की, एक इच्छा है किसी का धन लूटने की और एक इच्छा है किसी को जान से मारने की। अब बोलो। इच्छा तो दोनों हैं। अब इन इच्छाओं में से तुम किन इच्छाओं की खत्म करना चाहोगे? सम्यग्दृष्टि इच्छातीत नहीं होता, पर उसके अन्दर की भोग- आकांक्षा मन्द पड़ जाती है। आकांक्षा से ऊपर उठना कठिन है पर भोगाकांक्षाओं से मुक्त होना बहुत सरल है। अपने मन को मोड़ो और भोगाकांक्षा से बचो। इसी का नाम एक गृहस्थ का निःकांक्षितपन है। आकांक्षा से भोगाकांक्षा को बढ़ाने का उपाय है भोग। आकांक्षा से मुड़ने का उपाय क्या है? भोगाकांक्षा से बचना चाहते हैं तो एक ही रास्ता है। क्या रास्ता है? शुभ कर्म अनुष्ठान में जोड़ो और भोगाकांक्षा की असारता का स्मरण करो। मनुष्य के मन में भोगाकांक्षा बड़े प्रबल रूप में होती है, हर मनुष्य में होती है। क्यों होती है? क्योंकि भोगों के माध्यम से कुछ पल की सुखानुभूति होती है। होती है। कि नहीं होती है? होती है, लेकिन तुम्हारी वह सुखानुभूति कितनी देर टिकती है? सन्त कहते हैं कि अपनी भोगाकांक्षा की पड़ताल करो और यह देखो कि तुम्हारे मन में उत्पन्न होने वाली भोगों की आकांक्षा तुम्हें कितना सुख देती है और कितना दुःख देती है, तो तुम पाओगे क्षणमात्र का सुख, बहुत काल का दुःख, थोड़ा सा सुख और दुःख का कोई पैमाना नहीं। संसार की मुक्ति का जो विपक्षी है ऐसे कामभोग सब प्रकार के अनर्थों की खान है।