दिव्य विचार: गिरने के बाद उठने की कला सीखो- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

दिव्य विचार: गिरने के बाद उठने की कला सीखो- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि जिनके हृदय में धर्म-वत्सलता है, धर्म से अनुराग है, धर्मी से अनुराग है, वह उसे वापस स्थिर किए बिना नहीं रहता। एक नन्हा सा बच्चा जब गिरता है तो उसे गिरा देखकर मॉ कभी चुप नहीं रहती है। क्या करती है? उसको पुचकारती है-बेटा ! कुछ नहीं हुआ, कुछ नही हुआ, आगे चल, घोड़ा कूदा है। वह उठता है और चलने लगता है। यही होता है, बच्चा जब चलना सीखता हैं तो धीरे-धीरे चलता है। सम्हल-सम्हल चलेगा तो नहीं गिरेगा, फिर भी गिरता है तो हाथ दे दो, बच्चा फिर से उत्साहित होता है। ऐसा क्यो? क्योकि मां के हृदय में उस बच्चें के प्रति प्रेम है। मॉ चाहती है मेरा बेटा चलना सीखे। चलना ही नहीं, दौड़ना सीखे और आगे बढ़े। मां उसे प्रोत्साहित करती है। ऐसे ही धर्म मार्ग में चलने वाले कोई भी आत्मसाधक जब अपने सहधर्मी को किसी वजह से मार्ग से डिगते हुए देखते हैं तो उनके हृदय में हार्दिक पीड़ा होती है और उसी पीड़ा से प्रेरित होकर वे उसे सम्हालने के लिए अपने दोनो हाथ आगे बढ़ा लेते है कि चल आगे चल, यह रास्ता ही फिसलन भरा है। इस पर एक-एक कदम सम्हल-सम्हलकर चलना पड़ा है। यदि कोई गिरे तो गिरने में कोई आश्चर्य की बात नहीं है, गिरने के बाद उठाने की कला सीखनी चाहिए। आज मैं चार बातें आप सबसे कहूंगा-गिरना, गिराना, सम्हलना, सम्हालना। तुम अगर किसी रास्ते पर चल रहे हो, सच्चे रास्ते पर चल रहे हो, तुमने जिस मोक्षमार्ग को अंगीकार किया तो चौबीस घंटे इस बात के लिए सावधान रहो कि मैं कहीं गिरूं नहीं। खुद को गिरने से बचाओ। पहले तुम अपने आपको स्थिर करोगे, तभी दूसरों को स्थिर कर पाओगे, जो खुद गिरा हुआ है वह दूसरों को कैसे उठा सकता है? अगर किसी को नीचे से ऊपर उठाना है तो तुम्हे अपना स्तर ऊँचा करना पड़ेगा। तुम्हारी यह जिम्मेदारी है कि जिस मोक्षमार्ग पर तुम चल रहे हो उस मार्ग पर तुम फिसलो नहीं, टिके रहो, स्थिर रहो, गिरो नहीं। फिर भी कर्म किसी को नहीं छोड़ता।