दिव्य विचार: अपने दोषों पर नजर दौड़ाएं- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

दिव्य विचार: अपने दोषों पर नजर दौड़ाएं- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि एक सिद्धान्त बनाइए- मैं दोष ग्रहण करने की वृत्ति से अपने आप को दूर रखूंगा। किसी का भी हो, अपने बेटे का हो या बहू का हो या परिवार में किसी अन्य सदस्य का हो या समाज में किसी भी घटक का हो या मेरे सम्पर्क में आनेवाले कोई भी व्यक्ति हो या सन्त महात्मा हों। तुम लोग देखो तुम्हारी क्या प्रवृत्ति है। तुम लोग रोज प्रवचन सुनते हो। सुनते हो कि नहीं? सन्त जो भी बातें बोलते हैं, सब अच्छी बातें बोलते हैं और एक दिन अगर महाराज कड़वी बातें बोल दें तो क्या होगा? क्या बोलेंगे आप? महाराज को क्या ऐसा बोलना चाहिए, महाराज जी ने ऐसा कैसे बोल दिया, महाराज को ऐसा नहीं बोलना चाहिए। बोलो ! ऐसा होता है कि नहीं? तुम जब महाराज को भी नहीं छोड़ते तो औरों का तो भगवान् ही जाने। क्या प्रवृत्ति है? अच्छाई में भी बुराई देखने की प्रवृत्ति है। ऐसा इंसान सदैव दुःखी रहेगा। एक दिन चलनी ने सुई से कहा- बहन ! देख, तेरे मुँह में छेद है। सुई ने बड़ी विनम्रता से कहा- सही कहा बहन ! पर जरा अपनी तरफ भी तो देखो तुम्हारा तो पूरा शरीर ही छेदों से बना है।

दोष पराए देखकर चलत हसंत हसंत । खुद के याद न आवहिं जिनका आदि न अंत ॥

दुनिया की ढेर सारी बुराइयाँ तुम्हारे भीतर पनप रही हैं। उसकी तरफ तुम्हारी दृष्टि नहीं, तो क्या होगा? कुछ भी नहीं होगा। पहली बात दोष ग्रहण की प्रवृत्ति से बचें। इसे आत्मसात कीजिए। जीवन के विकास का यह बहुत महत्त्वपूर्ण कदम होगा। आप देखोगे तो संसार में ऐसा कोई भी प्राणी नहीं है, जिसमें कोई कमी न हो, कुछ न कुछ कमी संसार के हर एक प्राणी में है।