दिव्य विचार: दोषारोपण से बचने का प्रयास करें- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

दिव्य विचार: दोषारोपण से बचने का प्रयास करें- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि अपनी प्रवृत्ति को मोड़िए कि मुझे दोष देखना नहीं है, अपनी कमियों को देखना है। आप यह बताइए कि आप बुहारी कहाँ लगाते हो? अपने घर में या पड़ोसी के घर में? बोले- महाराज ! हमारे घर में बुहारी लगाएंगे तो हमारे घर का कचरा साफ होगा, पड़ोसी के घर में लगाने से उसके घर का कचरा साफ होगा। ऐसी गलती कभी नहीं करते कि पड़ोसी के घर में बुहारी लगाओ, तो पड़ोसी के दोष देखने की गलती क्यों करते हो? पहले तो दोष से बचिए, फिर दोषारोपण से बचिए। दोष ग्रहण यानी दूसरों के दोष देखना। दूसरों के दोष दिख जाएँ तब तक खतरा नहीं, दोषारोपण उससे खतरनाक है। दोष में तो हो सकता है उसके अन्दर विद्यमान कमी ही दिखे, पर प्रायः दोषारोपण मिथ्या होता है, झूठ होता है। सामनेवाले के ऊपर कोई भी आरोप लगा दो, कुछ भी कह दो, तिल को ताड़ बना दो, बढ़ा-चढ़ाकर कह दो। दोषारोपण तो कभी किसी पर करना ही नहीं चाहिए और मिथ्या दोषारोपण की तो सोचना भी नहीं चाहिए। सोचो ! आप कभी किसी पर दोषारोपण करते हो कि नहीं? महाराज ! गलती खुद की होती है और दोष सामनेवाले पर लगा देते हैं। हैं कि नहीं? यह दोषारोपण की प्रवृत्ति बहुत खराब है। यह आपने देखा कि दोषारोपण किस पर करते हैं? अपना दोष किस पर मढ़ते हैं? दोषारोपण में भी दो स्थितियाँ हैं। एक अपनी गलती और आरोप सामने वाले पर, दूसरा सामने वाले से द्वेष और उस पर झूठा आरोप। अहंकारवश, द्वेषवश, ईष्यावश और लालचवश दोषारोपण होता है। अहंकारवश दोषारोपण क्यों? अपने से कोई गलती हो और गेंद दूसरे की तरफ फेंक दो (आरोप दूसरे पर लगा दो), गलती हमने की और आरोप दूसरे पर लगा दिया। मनुष्य का ईगो बहुत गड़बड़ होता है।