दिव्य विचार: तुम्हारी रूचि पाप में है या पुण्य में- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

दिव्य विचार: तुम्हारी रूचि पाप में है या पुण्य में- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि आज जो कार्य आज आप रुचिपूर्वक करते हैं, उसमें एक अलग रस रहता है, एक अलग प्रकार के आनन्द की अनुभूति होती है। जिस कार्य में आपकी रुचि नहीं है, अनमने भाव से आप उसे करते हैं, अगर करना हो तो वह काम आपके लिए एक बोझ बन जाता है। ऐसा जरूरी नहीं कि जो काम आप करते हैं, रुचिपूर्वक ही करते हैं या अपनी रुचि का ही काम करते हैं। कई बार आपके साथ ऐसे प्रसंग बन जाते हैं, जिसमें आपकी रुचि नहीं है या फिर दूसरों के दबाव या प्रभाव वश करना पड़ता है, किसी के लिहाज या संकोचवश करना पड़ता है, अरुचिपूर्वक करते हैं। जिस कार्य के प्रति आपकी स्वभाविक रुचि होती है, उस कार्य को करते समय आपकी एक अलग ही धारा बन जाती है। जब हम जैन शास्त्रों के सन्दर्भ में रुचि शब्द के अर्थ को देखते है तो उसका बड़ा ही गहरा अर्थ है। रुचि का अर्थ है- प्रीति, रुचि का अर्थ है- श्रद्धा, रुचि का अर्थ है- प्रतीति, रुचि का अर्थ है- निश्चय और रुचि हमारी आत्मा का एक परिणाम विशेष है, जो हमें हमारी आत्मा से तन्मयता दिलाता है। रुचि शब्द बहुत व्यापक है। सबकी अपनी-अपनी रुचि है, अच्छी रुचि, बुरी रुचि, जैसी भी रुचि है, सो है। आज मुझे उसी रुचि के सन्दर्भ में आपसे बात करनी है और चार रुचियों की बात करूँगा- पाप रुचि, भोग रुचि, धर्म रुचि और आत्म रुचि । रुचि तो तुम्हारे भीतर है, रुचि गुण है हर जीव का, रुचि रहित कोई जीव नहीं रहता। पर तुम अपनी रुचि की पड़ताल करके देखो। तुम्हारी रुचि किसमें है- पाप में है या नहीं। मन को पलटो, पर पहचान कैसे करें कि मेरी रुचि पाप रुचि है या नहीं? इसकी सीधी-सीधी कसौटी है- पापात्मक कार्यों के आने पर उत्सुकता और उत्कण्ठा अगर बढ़ती है, दिलचस्पी बढ़ती है, उसमें लगन बढ़ रही है, झुकाव ज्यादा दिख रहा है तो समझ लेना मेरी रुचि अभी पाप रुचि है।