दिव्य विचार: अपनी आकांक्षाओं को पहचानो- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

दिव्य विचार: अपनी आकांक्षाओं को पहचानो- मुनिश्री प्रमाण सागर जी महाराज

मुनिश्री प्रमाण सागर जी कहते हैं कि मनुष्य के मन में नित प्रति नई-नई आकांक्षाएँ उत्पन्न होती रहती हैं। चाह, इच्छा, आकांक्षा स्वाभाविक हैं। जैसे समुद्र में लहर उत्पन्न होती है, मिटती है, वैसे ही हमारे चित्त में आकांक्षाओं की लहर उत्पन्न होती हैं और मिटती रहती हैं। लेकिन हमारा धर्म कहता है आकांक्षा से निराकांक्षा की ओर बढ़ें। सम्यग्दर्शन के दूसरे अंग निकांक्षित अंग के सन्दर्भ में मैं आपसे चार बातें करना आकांक्षा, भोगाकांक्षा, दुराकांक्षा और निःकांक्षा । हमारा मन है, मन इच्छारहित नहीं होता। सामान्य दृष्टि से देखा जाए तो हर मनुष्य के मन में कोई न कोई आकांक्षा है। आप में भी है, मुझमें भी है, जो भी मनुष्य प्रवृत्ति में लीन हैं, सबके मन में कोई न कोई आकांक्षा है क्योंकि बिना इच्छा के मनुष्य की प्रवृत्ति नहीं होती। मैं प्रवचन कर रहा हूँ, इच्छापूर्वक कर रहा हूँ या बिना इच्छा के ? आप यहाँ सुन रहे हो, इच्छा से सुन रहे हो या बिना इच्छा के ? आप अपनी जो भी क्रिया करते हो, इच्छा से करते हो या बिना इच्छा के ? तो फिर हम, आप कोई भी निःकांक्षित नहीं हुए। हमारे, आपके, किसी के भीतर निःकांक्षा नहीं रही? निःकांक्षा नहीं, तो हम सम्यग्दृष्टि कहाँ और सम्यग्दृष्टि नहीं तो हमारा मोक्षमार्ग कहाँ और मोक्षमार्ग नहीं तो हमारा कल्याण कहाँ? महाराज ! बात तो सही है। है अन्तर इच्छा-इच्छा में सम्यग्दर्शन का दूसरा अंग है निःकांक्षित अंग। जिसके अन्दर इच्छा है वह व्यक्ति निःकांक्षित नहीं है? सन्त कहते हैं नहीं, इसे समझो। इच्छा होना, आकांक्षा होना स्वाभाविक है। भूमिका के अनुसार सबमें होगी, लेकिन अपनी इच्छाओं की पड़ताल करें। तुम्हारे मन में किस केटेगरी की इच्छा है? तुम्हारे मन में किस तरह की आकांक्षा है? एक इच्छा है भगवान् की सेवा-पूजा करने की, एक इच्छा है ध्यान करने की, एक इच्छा है आत्मचिन्तन करने की, एक इच्छा है स्वाध्याय करने की, एक इच्छा है व्रत-उपवास करने की, एक इच्छा है दीन-दुःखियों की सेवा करने की, एक इच्छा है दान देने की, यह भी इच्छा है।